स्वदेशी टाइम्स, दिल्ली; नोबेल शांति पुरस्कार जिसे विश्व में सबसे प्रतिष्ठित और सम्मानजनक पुरस्कारों में गिना जाता है, वह अब एक नई बहस का केंद्र बन चुका है. इस बार विवाद की शुरुआत किसी लोकतांत्रिक देश से नहीं बल्कि तालिबान शासित अफगानिस्तान से हुई है. वही तालिबान जहां सत्ता और सोच आज भी तमाम वैश्विक मूल्यों से टकराती दिखती है. मुद्दा अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप को नोबेल शांति पुरस्कार के लिए नामित किए जाने से शुरू हुआ. जहां पाकिस्तान समेत कई देशों ने ट्रंप के वैश्विक प्रभाव और मिडिल-ईस्ट में उनकी भूमिका को देखते हुए उन्हें इस पुरस्कार का हकदार बताया, वहीं तालिबान की सोशल मीडिया इकाइयों ने इस पर खुला ऐतराज जताया.
तालिबान से जुड़े सोशल मीडिया अकाउंट्स ने ट्रंप को ‘दुनिया का सबसे बड़ा खलनायक’ बताया. दावा किया कि उन्होंने गाजा में एक लाख से ज्यादा लोगों की हत्या करवाई, जिनमें महिलाएं और बच्चे बड़ी संख्या में शामिल थे. साथ ही उन पर यह भी आरोप लगाए गए कि उन्होंने बाल यौन अपराधियों को बचाने के लिए जेफरी एपस्टीन से जुड़ी जानकारी को छिपाया और विश्वविद्यालय परिसरों में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को दबाया.
अखुंदजादा हैं शांति के दावेदार?
तालिबान के अनुसार अगर कोई इस समय शांति का असली प्रतीक है तो वह हैं उनके सर्वोच्च नेता हिबतुल्ला अखुंदजादा. तालिबान के पोस्ट्स में लिखा गया कि उन्होंने देश को विदेशी कब्जे से मुक्त कराया, आम माफी की घोषणा की जिससे हजारों लोगों की जान बची, और चार दशकों के युद्ध के बाद अफगानिस्तान को एक केंद्रीकृत सरकार के अंतर्गत एकजुट किया. एक पोस्ट में तालिबान ने यह भी कहा कि काबुल का एक कुख्यात क्षेत्र जो कभी नशेड़ियों और अपराधियों का अड्डा हुआ करता था, वहां आज एक सार्वजनिक पुस्तकालय है जो मुफ्त किताबें देता है. इसे तालिबान शासन की ‘प्रगतिशीलता’ के उदाहरण के तौर पर पेश किया गया.
दुनिया मानेगी तालिबान का दावा?
जहां तालिबान अपने नेता को ‘शांति का प्रतीक’ बताने की कोशिश कर रहा है, वहीं दुनिया के तमाम देश उनके रिकॉर्ड पर उंगलियां उठा रहे हैं. अमेरिका की एक पूर्व खुफिया अधिकारी ने कटाक्ष करते हुए लिखा कि अगर अखुंदजादा को नोबेल दिया जाए तो उसमें ‘बच्चों को आत्मघाती हमलावर बनाना’ जैसे तथ्यों को भी जरूर शामिल किया जाए. नोबेल पुरस्कार, जिसका मूल उद्देश्य दुनिया में अहिंसा, मानवता और संवाद को बढ़ावा देना है, क्या वह किसी ऐसे व्यक्ति को मिल सकता है जो खुद हथियारबंद आंदोलन का नेतृत्व करता हो? तालिबान का यह दावा निश्चित ही इस सवाल को वैश्विक मंचों पर गंभीरता से लाकर खड़ा कर रहा है.
नोबेल कमेटी की चुप्पी
इस पूरे विवाद में अब तक नोबेल कमेटी की ओर से कोई आधिकारिक प्रतिक्रिया नहीं आई है, लेकिन सोशल मीडिया पर बहस तेज हो चुकी है. एक पक्ष जहां ट्रंप को नोबेल दिए जाने के विरोध में तालिबान के बयान को ‘राजनीतिक प्रचार’ मान रहा है, वहीं दूसरा पक्ष इसे अमेरिका की विदेश नीति की विफलताओं की याद के तौर पर देख रहा है